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Rajasthan ki prachin sabhyata | राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ

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Rajasthan ki prachin sabhyata

Rajasthan ki prachin sabhyata | राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ | राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं प्रश्न | राजस्थान की ताम्र युगीन सभ्यता | राजस्थान की सभ्यता के नोट्स :

मानव द्वारा सर्वप्रथम पाषाण निर्मित वस्तुओं का उपयोग प्रारंभ किया गया जब मानव पाषाण से निर्मित वस्तुओं का उपयोग अपने कार्य में करने लगा उसे योग को पाषाण युग के नाम से जाना जाने लगा पाषाण युग के पश्चात मानव ने सर्वप्रथम तांबा धातु का उपयोग किया इसी कारण उसे सभ्यता को ताम्र युगीन सभ्यता के नाम से जाना जाता है टैम की सभ्यता के पास जी सभ्यता का विकास हुआ वह है कहां से युगीन सभ्यता थी इस सभ्यता के अंतर्गत मानव ने कांस्य से निर्मित वस्तुओं का उपयोग प्रारंभ किया मानव सभ्यताओं के विकास के इस चरण में लोहे का उपयोग किया जाने लगा तथा उसे समय यह सभ्यता लोहयुगीन सभ्यता सभ्यता कहलाई लोयुगीन सभ्यता के उपरांत मानव ने आधुनिक सभ्यताओं के अपने जीवन को डाला राजस्थान की कुछ महत्वपूर्ण सभ्यताओं का विवरण नीचे दिया गया है

जिनमें प्रमुख है कालीबंगा सभ्यता ( हनुमानगढ़ ), गणेश्वर सभ्यता ( नीमकाथाना ), आहड़ सभ्यता ( उदयपुर ),नगरी सभ्यता ( चित्तौड़गढ़), बागोर सभ्यता ( भीलवाड़ा ), रंग महल सभ्यता ( हनुमानगढ़ ), विराट नगर सभ्यता ( जयपुर ), बालाथल सभ्यता ( उदयपुर ), ओजियाना सभ्यता ( भीलवाड़ा ), कुराड़ा सभ्यता ( नागौर )

कालीबंगा ( हनुमानगढ़ )

Rajasthan ki prachin sabhyata में से कालीबंगा सभ्यता एक नगरीय सभ्यता थी, जो सिंधु सभ्यता के पांच स्थलों में से एक थी कालीबंगा सभ्यता प्राप्त हड़प्पा और हड़प्पा कालीन सभ्यता के अवशेषों के लिए जानी जाती है कालीबंगा कांस्ययुगीन सभ्यता मानी जाती है कालीबंगा घग्गर नदी( सरस्वती नदी )के बाएँ तट पर हनुमानगढ़ जिले में है। कार्बन डेटिंग पद्धति के अनुसार कालीबंगा सभ्यता का समय 2350 ई.पू. से 1750 ई.पू. माना जाता है।

कालीबंगा की खोज सर्वप्रथम वर्ष 1952 में पहली बार अमलानंद घोष ने इसकी पहचान सिंधुघाटी सभ्यता के स्थल के रूप में की जाती है सर्वप्रथम बी.वी. लाल तथा बी.के. थापर के निर्देशन में यहां वर्ष 1961 से 1969 तक उत्खनन का कार्य किया गया |

कालीबंगा एक सिंधी भाषा का शब्द है कालीबंगा का शाब्दिक अर्थ होता है काले रंग की चूड़ियां

उत्खनन में मिली कई चूड़ियों के टुकड़ों के कारण ही इस सभ्यता को कालीबंगा नाम दिया गया | कालीबंगा सभ्यता को पांच स्तरों में विभक्त किया गया है जिसमें से दो सबसे प्राचीन हैं तथा अन्य तीन इसके बाद वाले हैं| कालीबंगा से पूर्व हड़प्पाकालीन, हड़प्पाकालीन तथा उत्तर-हड़प्पाकालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। 

देश के दो सबसे बड़े पुरातत्व के स्थल राखीगढ़ी ( हरियाणा) व धोलावीरा ( गुजरात ) के अलावा कालीबंगा सभ्यता राजस्थान का देश में तीसरा स्थान है – कालीबंगा को ‘दीन-हीन’ बस्ती सभ्यता भी कहा जाता है।

 विश्व में सर्वप्रथम लकड़ी की नाली के अवशेष कालीबंगा में से प्राप्त हुए हैं। भूकंप के हिसाब से विश्व में सर्वप्रथम कालीबंगा सभ्यता से मिले हैं|  कालीबंगा सभ्यता से मिट्टी से बनी हुई खिलौना गाड़ी कुत्ता, भेड़िया, चूहा और हाथी की प्रतिमाएँ मिली हैं। कालीबंगा में मातृसत्तात्मक परिवार की व्यवस्था प्रमाण मिलते हैं। कालीबंगा से कपालछेदन क्रिया का प्रमाण मिलता है। कालीबंगा से कलश शवदान के साक्ष्य मिले हैं। बेलनाकार तंदूर के प्रमाण कालीबंगा सभ्यता से मिले हैं कालीबंगा सभ्यता से सामूहिक तंदूर के अवशेष मिले हैं| कालीबंगा से किसी भी प्रकार के मंदिरों के अवशेष प्राप्त नहीं हुए हैं। संस्कृत साहित्य में कालीबंगा को ‘बहुधान्यदायक क्षेत्र’ कहा जाता था। कालीबंगा सभ्यता से पंख फैलाए हुए बगुले की प्रतिमा मिली है| कालीबंगा सभ्यता के अवशेषों से मिलते जुलते अवशेष पाकिस्तान के कोटदीजी नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं  कालीबंगा के नगरों की सड़कें एक दूसरे को समकोण पर काटती थी। यहाँ के लोग कच्ची ईंटों से बने मकानों में रहते थे तथा मकानों की नालियाँ, शौचालय इत्यादि में पक्की ईंटों का प्रयोग किया गया था जबकि मोहनजोदड़ो के घर पक्की ईंटों के बने हुए थे | 7 अग्निवेदिकाओं के प्रमाण कालीबंगा सभ्यता से प्राप्त हुए हैं| पुरातत्वविद डॉक्टर दशरथ शर्मा ने कालीबंगा को सिंधु सभ्यता की तीसरी राजधानी की संज्ञा दी है ( पहली हड़प्पा तथा दूसरी मोहनजोदड़ो)। 

कालीबंगा से उत्खनन में दोहरे जुते हुए खेत के अवशेष प्राप्त हुए हैं जो विश्व में जुते हुए खेत के प्राचीनतम प्रमाण हैं। यहाँ से प्राप्त जुते हुए खेत में चना व सरसों बोया जाता था। जाते हुए खेतों में ग्रिड पैटर्न के निशान मिले हैं कालीबंगा सभ्यता से एक साथ दो फैसले बोई जाने के प्रमाण मिले हैं जिनमें गेहूं तथा जो फसल है| कालीबंगा सभ्यता में दाएं से बाएं और लिखी जाने वाली लिपि के प्रमाण मिले हैं जिसे अभी तक नहीं पढ़ा गया है यह लिपि सेंधव कालीन लिपि ब्रस्टोफेदन लिपि के समान थी|  कालीबंगा सभ्यता से सांडों की जुड़वा पैरों वाली मूर्तियों के प्रमाण मिले हैं|  मकान के गंदे पानी के निकास की व्यवस्था के लिए कालीबंगा सभ्यता में लकड़ी की नालियों का प्रयोग किया गया था | कालीबंगा के लोग मुख्यतया शव को दफनाते थे। छेद किए हुए किवाड़ व सिंध क्षेत्र के बाहर मुद्रा पर व्याघ्र का अंकन एकमात्र इसी स्थल से मिले हैं। कालीबंगा में तीन मानवाकृतियाँ मिली हैं जो भग्नावस्था में हैं। कालीबंगा सभ्यता से छह छिद्रों वाली खोपड़ी शल्य चिकित्सा के प्राचीनतम प्रमाण मिले हैं| कालीबंगा सभ्यता स्थल से मूर्ति देवी देवता का कोई भी प्रमाण नहीं मिला है|  कालीबंगा सभ्यता से जो मोहर प्राप्त हुई है वह मेसोपोटामिया की मिट्टी से बनी हुई है| भारत सरकार ने सर्वप्रथम वर्ष 1961 में कालीबंगा सभ्यता के अवशेष पर 90 पैसे का डाक टिकट जारी किया था|  वर्ष 1985 86 में कालीबंगा से प्राप्त अवशेषों के संरक्षण के लिए एक संग्रहालय की स्थापना की गई

गणेश्वर (नीम का थाना) | Rajasthan ki prachin sabhyata

नीम का थाना जिले से कुछ दूरी पर स्थित गणेश्वर से उत्खनन में ताम्रयुगीन उपकरण प्राप्त हुए हैं। गणेश्वर कांतली नदी के किनारे स्थित है। गणेश्वर को प्राक् हड़प्पा कालीन सभ्यता माना जाता है। डी.पी. अग्रवाल ने रेडियोकार्बन विधि एवं तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर इस स्थल की तिथि 2800 ईसा पूर्व निर्धारित की। यहाँ पर उत्खनन कार्य रतनचंद्र अग्रवाल द्वारा वर्ष 1977 में तथा विस्तृत उत्खनन वर्ष 1978-79 में विजय कुमार द्वारा करवाया गया।

Rajasthan ki prachin sabhyata गणेश्वर को ‘पुरातत्व का पुष्कर’ भी कहा जाता है। सबसे ज्यादा तांबे के उपकरण भारत में इसी सभ्यता से प्राप्त हुए हैं  गणेश्वर सभ्यता के उत्खनन से दोहरी पेचदार शिरेवाली ताम्रपिन भी प्राप्त हुई है। गणेश्वर सभ्यता को ‘ताम्र संचयी संस्कृति’ भी कहा जाता है। गणेश्वर से मछली पकड़ने का काँटा व तांबे का वाड प्राप्त हुआ है। गणेश्वर सभ्यता से बहुत बड़ी मात्रा में तांबे के उपकरण इन उपकरणों में तीर, भाले, सूइयाँ, कुल्हाड़ी, मछली पकड़ने के काँटे आदि शामिल हैं।  इसी कारण गणेश्वर को भारत में ‘ताम्रयुगीन सभ्यताओं की जननी’ कहा जाता है। गणेश्वर में बस्ती को बाढ़ से बचाने हेतु वृहदाकार पत्थर के बाँध बनाने के प्रमाण मिले हैं। गणेश्वर से उत्खनन में जो मृद्भाण्ड प्राप्त हुए है उन्हें कपिषवर्णी मृद्पात्र कहते हैं। गणेश्वर से मिट्‌टी के छल्लेदार बर्तन भी प्राप्त हुए हैं। गणेश्वर में ईंटों के उपयोग के प्रमाण नहीं मिले हैं। मिट्‌टी के छल्लेदार बर्तन केवल गणेश्वर में ही प्राप्त हुए हैं।

बैराठ ( जयपुर )

बैराठ जयपुर जिले में शाहपुरा उपखण्ड में बाणगंगा नदी के किनारे स्थित एक लौहयुगीन सभ्यता है। बैराठ का प्राचीन नाम ‘विराटनगर’ था। महाजनपद काल में यह मत्स्य जनपद की राजधानी था।

यहाँ पर उत्खनन कार्य वर्ष 1936-37 में दयाराम साहनी द्वारा तथा वर्ष 1962-63 में नीलरत्न बनर्जी तथा कैलाशनाथ दीक्षित द्वारा किया गया।

वर्ष 1837 में कैप्टन बर्ट ने यहाँ से मौर्य सम्राट अशोक के भाब्रू शिलालेख की खोज की। वर्तमान में यह शिलालेख कलकत्ता संग्रहालय में सुरक्षित है। भाब्रू शिलालेख में सम्राट अशोक को ‘मगध का राजा’ नाम से संबोधित किया गया है।  भाब्रू शिलालेख के नीचे बुद्ध, धम्म एवं संघ लिखा हुआ है। 

बैराठ में बीजक की पहाड़ी, भीमजी की डूँगरी तथा महादेवजी की डूँगरी से उत्खनन कार्य किया गया। यहाँ से मौर्यकालीन तथा इसके बाद के समय के अवशेष मिले हैं। बैराठ से 36 मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं जिनमें 8 पंचमार्क चाँदी के तथा 28 इण्डो-ग्रीक तथा यूनानी शासकों की हैं। 16 मुद्राएँ यूनानी शासक मिनेण्डर की हैं।

 उत्तर भारतीय चमकीले मृद्भाण्ड वाली संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले राजस्थान का सबसे प्राचीन स्थल बैराठ है। वर्ष 1999 में बीजक की पहाड़ी से अशोक कालीन गोल बौद्ध मंदिर, स्तूप एवं बौद्ध मठ के अवशेष मिले हैं जो हीनयान सम्प्रदाय से संबंधित है। बैराठ सभ्यता एक ग्रामीण सभ्यता है  बैराठ में पाषाणकालीन हथियारों के निर्माण का एक बड़ा कारखाना स्थित था। यहाँ भवन निर्माण के लिए मिट्‌टी की बनाई ईंटों का प्रयोग अधिक किया जाता था। यहाँ पर शुंग एवं कुषाण कालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ उत्खनन से लौहे के तीर तथा भाले प्राप्त हुए हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि यहां के लोग लोह धातु से परिचित थे – 634 ई. में ह्वेनसांग विराटनगर आया था तथा उसने यहाँ बौद्ध मठों की संख्या 8 बताई है। बैराठ से ‘शंख लिपि’ के प्रमाण प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं। यहाँ से मुगलकाल में टकसाल होने के प्रमाण मिलते हैं। यहाँ मुगल काल में ढाले गए सिक्कों पर ‘बैराठ अंकित’ मिलता है।

आहड़ ( उदयपुर )

आहड़ सभ्यता एक ताम्र युगीन सभ्यता है जो उदयपुर में बेडच नदी व बनास नदी के किनारे स्थित है| आहड़ सभ्यता को प्राचीन काल में ताम्रवती नगरी कहा जाता था| दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में इसे आघाटपुर या आघट दुर्ग के नाम से जाना जाता था।

प्राचीन नाम : ताम्रवती नगरी ,आघाटपुर, आघाट दुर्ग

उपनाम : बनास संस्कृति, आहड़ संस्कृति, मृतकों के टिलों की सभ्यता | वर्तमान में इसे धूलकोट के नाम से जाना जाता है

आहड़ सभ्यता का उत्खनन सर्वप्रथम अक्षय कीर्ति व्यास के नेतृत्व में सन 1953 में शुरू हुआ

आर. सी. अग्रवाल : व्यापक उत्खनन कार्य वर्ष 1954 | आर.सी. अग्रवाल ने आहड़ के पास दूर मतून एवं उमरा नामक स्थानों से ताम्र शोधन के साक्ष्य प्राप्त किए हैं।

वी. एन. मिश्रा एवं एच. डी. सांकलिया: 1961-62 में उत्खनन करवाया गया ( भारत सरकार )

विजय कुमार एवं पी. सी. चक्रवर्ती: आहड़ के उत्खनन के समय राजस्थान सरकार की ओर से उपस्थित रहे।

डॉ. सांकलिया ने इसे आहड़ या बनास संस्कृति कहा है।

 महासतियों का टीला :- आहड़ सभ्यता में स्थित है।

आहड़ एक ग्रामीण सभ्यता थी। आहड़ सभ्यता में कमर के नीचे लहंगा धारण किए हुए नारी की खंडित मिट्टी से बने हुई मूर्ति मिली है| आहड़ से मिट्टी से बने हुई मूर्तियों में क्रिस्टल, फेन्यास, जैस्पर, सेलखड़ी तथा लेपीस लाजूली जैसे धातुओं का प्रयोग किया जाता था। पहले स्तर में मिट्‌टी की दीवारें, मिट्‌टी के बर्तनों के टुकड़े तथा पत्थर के ढेर प्राप्त हुए हैं। आहड़वासी धूप में सुखाई गई कच्ची ईंटों से मकानों का निर्माण करते थे।आहड़ से पकी ईंटों के प्रयोग के प्रमाण नहीं प्राप्त हुए हैं।आहडवासी कुत्ता हाथी आगे जानवरों से परिचित थे तथा चावल की खेती उनकी प्रमुख खेती थी | आहड़ से छपाई के ठप्पे, अनाज पीसने की चक्की, चित्रित बर्तन एवं ताँबे के उपकरण मिले हैं। आहड़वासी लाल एवं काले रंग के मृद्पात्रों का उपयोग करते थे। आहड़ के लोग मृतकों को कपड़ों एवं आभूषण के साथ गाड़ते थे। लोगों का प्रमुख व्यवसाय ताँबा गलाना तथा उससे उपकरण बनाना था। आहड़ से अनाज रखने के मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘गोरे’ या ‘कोठे’ कहा जाता है।

आहड़ से प्राप्त हुई ताँबे की छ: मुद्राएँ व तीन मुहरें जिनका समय तीन ईसा पूर्व से प्रथम ईसा पूर्व पाया गया है यहाँ से प्राप्त मुद्रा पर एक ओर त्रिशूल तथा दूसरी ओर अपोलो देवता का चित्रण है। इस पर यूनानी भाषा में लेख भी अंकित है।

डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने आहड़ सभ्यता का समृद्ध काल 1900 ई. पू. से 1200 ई.पू. तक माना है।आहड़ से मिट्‌टी की बनी टेराकोटा वृषभ आकृतियाँ प्राप्त हुई है जिन्हें बनासियन बुल कहा गया है। जिसे टेराकोटा की संज्ञा दी गई है। आहड़ से प्राप्त एक ही मकान में 4 से 6 चूल्हों का प्राप्त हुए हैं यह सभ्यता एक संयुक्त परिवार व्यवस्था को दर्शाती है| आहड़ सभ्यता के लोग मिट्‌टी के बर्तन पकाने की उल्टी तिपाई विधि इस्तेमाल करते थे

बागोर ( भीलवाड़ा )

बागोर सभ्यता मांडल तहसील कोठारी नदी के किनारे स्थित है तथा यह एक पाषाणकालीन सभ्यता स्थल है। जहां पत्थर के औजारों का भंडार मिला है|

यहाँ पर उत्खनन कार्य वर्ष 1967-68 में डॉ. विरेन्द्रनाथ मिश्र, डॉ. एल.एस. लेश्निक राजस्थान पुरातत्व विभाग के सहयोग से किया गया। बागोर सभ्यता से मध्य पाषाण काल के अवशेष प्राप्त हुए हैं| बागोर सभ्यता के तीन स्तरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। पत्थरों से अपने औजार व शास्त्र बनाने के कारण बागोर की सभ्यता को ‘आदिम संस्कृति का संग्रहालय’ माना जाता है।

बागोर सभ्यता से सर्वाधिक 14 प्रकार की कृषि किए जाने के प्रमाण मिले हैं| बागोर में कृषि एवं पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। बागोर सभ्यता से मांस को भुने जाने के प्रमाण तथा जली हुई हड्डियां मिली है|

बालाथल ( उदयपुर ) | राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ

उदयपुर जिले में बालाथल गाँव के पास बनास या बेड़च नदी के निकट एक टीले के उत्खनन से यहाँ ताम्र-पाषाणकालीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

डॉ. वी. एन. मिश्र : सभ्यता की खोज वर्ष 1962-63

उत्खनन : डॉ. वी. एस. शिंदे, आर. के. मोहन्ते, डॉ. देव कोठारी एवं डॉ. ललित पाण्डे का सम्बन्ध इसी सभ्यता से माना जाता है। इन्होंने वर्ष 1993 में इस सभ्यता का उत्खनन किया था।

बालाथल से एक 11 कमरों के विशाल भवन के अवशेष मिले हैं। यहाँ के लोग बर्तन बनाने तथा कपड़ा बुनने के बारे में जानकारी रखते थे। बालाथल से कपड़े का टुकड़ा प्राप्त हुआ है।  बालाथल के उत्खनन में मिट्‌टी से बनी सांड की आकृतियाँ मिली हैं।  यहाँ से 4000 वर्ष पुराना कंकाल मिला है जिसको भारत में कुष्ठ रोग का सबसे पुराना प्रमाण माना जाता है। यहाँ से योगी मुद्रा में शवाधान का प्रमाण प्राप्त हुआ है।

रंगमहल ( हनुमानगढ़ )

रंगमहल एक ताम्रयुगीन सभ्यता है। जो हनुमानगढ़ जिले में सरस्वती ( वर्तमान में घग्घर ) नदी के पास स्थित है।  यहाँ पर उत्खनन कार्य डॉ. हन्नारिड के निर्देशन में स्वीडिश दल द्वारा वर्ष 1952-54 में किया गया।

यहां से 105 ताँबे की मुद्रा प्राप्त हुई है जिनमें से कुछ कुषाणकालीन है तथा कुछ उससे पहले की है तथा कुछ पंचमार्क मुद्राएं भी इनमें शामिल है| यहां से 2 कांसे की सीलें भी प्राप्त हुई है जिन पर ब्राह्मी लिपि अंकित है|

Rajasthan ki prachin sabhyata | राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ ( रंगमहल ) यहां के निवासी मकान के निर्माण में ईटों का प्रयोग करते थे | यहाँ मुख्य रूप से चावल की खेती हुआ करती थी | यहाँ से प्राप्त मृद्भाण्ड का रंग मुख्यत: लाल या गुलाबी था| गुरु शिष्य की मूर्ति के प्रमाण पत्र महल सभ्यता से ही मिले हैं|  रंग महल से गांधार शैली की मृण्मूर्तियाँ, टोटीदार घड़े, घण्टाकार मृद्पात्र एवं कनिष्क कालीन मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं। 

रंग महल को कुषाणकालीन सभ्यता के समान माना जाता है। रंगमहल में बसने वाली बस्तियों के तीन बार बसने एवं उजड़ने के प्रमाण मिले हैं।

गिलूण्ड ( राजसमंद )

गिलूण्ड सभ्यता ताम्रयुगीन सभ्यता है जो राजसमंद जिले में बनास नदी के तट पर स्थित है|

‘मोडिया मगरी’ नामक टीले का संबंध गिलूण्ड सभ्यता से है।

बी. बी. लाल : वर्ष 1957-58 में उत्खनन कार्य करवाया गया।

गिलूण्ड में लाल एवं काले रंग के मृद्भाण्ड मिले हैं। यह सभ्यता से स्लेटी रंग की तश्तरियाँ एवं कटोरे प्राप्त हुए हैं जो सांस्कृतिक परिवेश को दर्शाते हैं| यहाँ पर पक्की ईंटों के प्रयोग के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। यहाँ पर उत्खनन से ताम्रयुगीन सभ्यता एवं बाद की सभ्यताओं के अवशेष मिले हैं। यहाँ पर आहड़ सभ्यता का प्रसार था तथा इसी के समय यहाँ मृद्भाण्ड, मिट्‌टी की पशु आकृतियाँ आदि के चित्र मिले हैं।

सुनारी ( झुंझुनूँ )

सुनारी नामक पुरातात्विक स्थल झुंझुनूँ की खेतड़ी तहसील में कांतली नदी के किनारे स्थित है।

उत्खनन कार्य : वर्ष 1980-81 में राजस्थान राज्य पुरातत्व विभाग |

यहाँ से लोहा गलाने की प्राचीनतम भटि्टयाँ प्राप्त हुई है। यहाँ से स्लेटी रंग के मृद्भाण्ड संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। सुनारी से मातृदेवी की मृण्मूर्तियाँ तथा धान संग्रहण का कोठा प्राप्त हुआ है। सुनारी से मौर्यकालीन सभ्यता के अवशेष मिलते हैं जिनमें काली पॉलिश युक्त मृद्पात्र है। सुनारी के निवासी भोजन में चावल का प्रयोग करते थे तथा घोड़ों से रथ खींचते थे।

तिलवाड़ा ( बाड़मेर )

तिलवाड़ा बाड़मेर जिले में लूणी नदी के किनारे स्थित एक ताम्र पाषाणकालीन स्थल है|, जहाँ से 500 ई. पू. से 200 ई. तक विकसित सभ्यताओं के अवशेष मिले हैं।

उत्खनन कार्य : वर्ष 1967-68 में ‘राजस्थान राज्य पुरातत्व विभाग’ |

यहाँ पर उत्खनन का कार्य डॉ. वी. एन. मिश्र के नेतृत्व में किया गया। यहाँ एक अग्निकुण्ड के अवशेष जिसमें मानव अस्थि भस्म तथा मृत पशुओं के अवशेष मिले हैं। यहाँ से उत्तर पाषाण युग के भी अवशेष प्राप्त हुए हैं।

नगरी ( चित्तौड़गढ़ )

प्राचीन नाम मध्यमिका मिलता है। नगरी नामक पुरातात्विक स्थल चित्तौड़गढ़ में बेड़च नदी के तट पर स्थित है| नगरी की खोज 1872 ई. में कार्लाइल द्वारा की गई।

यहाँ पर सर्वप्रथम उत्खनन कार्य वर्ष 1904 में डॉ. डी. आर. भण्डारकर द्वारा तथा तत्पश्चात् वर्ष 1962-63 में केन्द्रीय पुरातत्व विभाग द्वारा करवाया गया। यहाँ से शिवि जनपद के सिक्के तथा गुप्तकालीन कला के अवशेष प्राप्त हुए हैं। 

प्राचीन नाम ‘मध्यमिका’ का उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य ग्रंथ में मिलता है। यहाँ से ही घोसुण्डी अभिलेख ( द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व ) प्राप्त हुआ है। नगरी शिवि जनपद की राजधानी रही है।  यहाँ से चार चक्राकार कुएँ भी प्राप्त हुए हैं।

 रैढ़ ( टोंक )

रैढ़, टोंक जिले की निवाई तहसील में ढील नदी के किनारे स्थित पुरातात्विक स्थल है।  यह एक लौह युगीन सभ्यता है।

 यहाँ पर उत्खनन कार्य वर्ष 1938-39 में दयाराम साहनी के नेतृत्व में तथा अंतिम रूप में उत्खनन कार्य डॉ. केदारनाथ पुरी के द्वारा करवाया गया।

रैढ़ के उत्खनन से बड़ी मात्रा में मिलने वाले लौह उपकरणों तथा मुद्राओं के कारण इसे ‘प्राचीन भारत का टाटानगर’ कहा जाता है।  यह एक धातु केंद्र था जहाँ पर औद्योगिक कार्य एवं निर्यात हेतु उपकरण एवं औजार बनाए जाते थे। रैढ़ में उत्खनन से लगभग 3075 आहत मुद्राएँ तथा 300 मालव जनपद के सिक्के प्राप्त हुए हैं। यहाँ से यूनानी शासक अपोलोडोट्स का एक खण्डित सिक्का भी प्राप्त हुआ है। रैढ़ में उत्खनन से हल्के गुलाबी रंग से मिट्‌टी का बना एक संकीर्ण गर्दन वाला फूलदान प्राप्त हुआ है। यहाँ से प्राप्त मृद्भाण्ड चक्र से निर्मित हैं तथा यहाँ से विभिन्न प्रकार के मिट्‌टी के बर्तन प्राप्त हुए हैं।

रैढ़ के मृद‌्भांडों में गोल ‘रिंग वेल्स’  थे। यहाँ से गले का हार, कर्णफूल, चूड़ियाँ आदि आभूषणों के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।  रैढ़ से मृतिका की बनी यक्षिणी की प्रतिमा प्राप्त हुई है जो संभवत: शुंग काल की मानी जाती है।

यहाँ से मालव जनपद के 14 सिक्के, 6 सेनापति सिक्के एवं 7 वपू के सिक्के प्राप्त हुए हैं।  रैढ़ से एशिया का अब तक का सबसे बड़ा सिक्कों का भण्डार मिला है।अशोक तकनीक से पॉलिश किया हुआ चुनार बलुआ पत्थर का एक बड़ा प्याला भी मिला है जो संभवत: बाहर से आयात किया हुआ है।

जोधपुरा ( जयपुर )

जोधपुरा नामक पुरातात्विक स्थल जयपुर जिले की कोटपुतली तहसील में साबी नदी के किनारे स्थित है। यह एक लौहयुगीन प्राचीन सभ्यता स्थल है।

सुनारी ( झुंझुनूँ ) एवं जोधपुरा से मौर्यकालीन सभ्यता के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं।

यहाँ पर उत्खनन कार्य वर्ष 1972-73 में आर.सी. अग्रवाल तथा विजय कुमार के निर्देशन में सम्पन्न हुआ। यहाँ उत्खनन से प्राप्त ताम्रयुगीन मृद‌्भांडों पर सिंधु सभ्यता का प्रभाव दिखाई देता है। यह स्लेटी रंग की चित्रित मृद्भाण्ड संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थल था।

जोधपुरा से लौह अयस्क से लौह धातु का निष्कर्षण करने वाली भटि्टयाँ भी प्राप्त हुई है। इस सभ्यता में मानव ने घोड़े का उपयोग रथ के खींचने में करना प्रारम्भ कर दिया था।

यह सभ्यता 2500 ईसा पूर्व से 200 ई. के मध्य फली-फूली। यह शुंग एवं कुषाणकालीन सभ्यता स्थल है।  

नोह ( भरतपुर )

उत्खनन कार्य : वर्ष 1963-64 में रतनचंद्र अग्रवाल ( रेडियो कार्बन तिथि के अनुसार) इस सभ्यता का समय 1100 ई.पू. से 900 ई.पू. माना जाता है।यह एक लौहयुगीन सभ्यता है

नोह से ताम्र युगीन, आर्य युगीन एवं महाभारत कालीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

 यहाँ से उत्खनन में विशालकाय यक्ष प्रतिमा तथा मौर्यकालीन पॉलिश युक्त चुनार के चिकने पत्थर के टुकड़े प्राप्त हुए हैं।  यहाँ से प्राप्त भांड काले तथा लाल है। यहाँ से 5 सांस्कृतिक युगों के अवशेष मिले हैं। यहाँ से कुषाण नरेश हुविस्क एवं वासुदेव के सिक्के प्राप्त हुए है।  

भीनमाल ( जालोर )

उत्खनन कार्य : 1953-54 में रतनचंद्र अग्रवाल के निर्देशन में किया गया। यहाँ के मृद‌्पात्रों पर विदेशी प्रभाव दिखाई देता है।

  यहाँ से रोमन ऐम्फोरा (सुरापात्र) भी मिला है। यहाँ की खुदाई से मृद्भाण्ड तथा शक क्षत्रपों के सिक्के प्राप्त हुए है। भीनमाल से यूनानी  सुराही भी प्राप्त हुई है।  यहाँ से प्रथम शताब्दी एवं गुप्तकालीन अवशेष भी प्राप्त हुए हैं।

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी भीनमाल की यात्रा की। महाकवि माघ एवं गुप्तकालीन विद्वान ब्रह्मगुप्त का जन्म स्थान भीनमाल माना जाता है। 

ईसवाल ( उदयपुर )

यह एक लौह युगीन सभ्यता हैं। प्राचीन औद्योगिक बस्ती। 

 उत्खनन कार्य राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर के पुरातत्व विभाग के निर्देशन में किया गया। –

यहाँ से प्राक् ऐतिहासिक काल से मध्यकाल तक का प्रतिनिधित्व करने वाली मानव बस्ती के प्रमाण पाँच स्तरों से प्राप्त हुए हैं। यहाँ पर 5वीं शताब्दी ई.पू. में लोहा गलाने का उद्योग विकसित होने के प्रमाण है। यहाँ से प्राप्त सिक्कों को प्रारंभिक कुषाणकालीन माना जाता है।  उत्खनन कार्य में ऊँट का दाँत एवं हडि्डयाँ मिली हैं।

नगर ( टोंक )

नगर ( टोंक ) पुरातात्विक स्थल टोंक जिले में उणियारा कस्बे के पास स्थित है। इसे कर्कोट नगर भी कहा जाता है।  नगर  का प्राचीन नाम ‘मालव नगर’ था। 

यहाँ पर उत्खनन कार्य वर्ष 1942-43 में श्रीकृष्ण देव द्वारा किया गया। नगर में उत्खनन से गुप्तोत्तर काल की स्लेटी पत्थर से निर्मित महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति प्राप्त हुई है। यहाँ से बड़ी संख्या में मालव सिक्के तथा आहत मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं।  यहाँ से प्राप्त मृदभांडों के अधिकतर अवशेषों का रंग लाल है। यहाँ से मोदक रूप में गणेश का अंकन, कमल धारण किए लक्ष्मी की खड़ी प्रतिमा, फणधारी नाग का अंकन प्राप्त हुई है। 

नगर के उत्खनन से लगभग 6000 मालव सिक्के मिले हैं। वर्तमान में नगर सभ्यता को ‘खेड़ा सभ्यता’ के नाम से जाना जाता है।

बरोर ( श्रीगंगानगर )

बरोर  श्री गंगानगर में सरस्वती नदी ( घग्गर ) के तट पास स्थित है।

उत्खनन कार्य : वर्ष 2003

यहाँ के मृद‌्भांडों में काली मिट्‌टी के प्रयोग के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। वर्ष 2006 में यहाँ मिट्‌टी के पात्र में सेलखड़ी के लगभग 8000 मनके प्राप्त हुए हैं। यह स्थल हड़प्पाकालीन विशेषताओं के समान जैसे सुनियोजित नगर व्यवस्था, मकान निर्माण में कच्ची ईंटों का प्रयोग तथा विशिष्ट मृद‌्भांड परम्परा आदि से युक्त है।  यहाँ से बटन के आकार की मुहरें प्राप्त हुई हैं।

नलियासर ( जयपुर )

 जयपुर स्थित इस पुरातात्विक स्थल से चौहान वंश से पूर्व की सभ्यता के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। यहाँ से आहत मुद्राएँ, उत्तर इण्डोससेनियन सिक्के, कुषाण शासक हुविस्क, इण्डोग्रीक, यौद्धेयगण तथा गुप्तकालीन चाँदी के सिक्के मिले हैं यहाँ से ब्राह्मी लिपि में लिखित कुछ मुहरें प्राप्त हुई हैं।

 चन्द्रावती ( माउण्ट आबू, सिरोही )

यहाँ से प्राप्त पुरावशेष प्राचीन मानव जीवन के निवास, आवास व उनके जीवन के विविध पक्षों पर जानकारी देते हैं। यहाँ पर उत्खनन से किले के अवशेष एवं अनाज संग्रह के कोठार मिले हैं। यहाँ एक विशाल दुर्ग था।

ओझियाना ( भीलवाड़ा )

भीलवाड़ा के बदनौर के पास खारी नदी के तट पर स्थित यह स्थल ताम्रयुगीन आहड़ संस्कृति से संबंधित है।

ओझियाना सभ्यता का काल 2500 ईसा पूर्व से 1500 ईसा पूर्व तक माना जाता है।यह पुरातात्विक स्थल पहाड़ी पर स्थित था। 

 उत्खनन : BR मीणा तथा आलोक त्रिपाणी द्वारा वर्ष 1999-2000 में किया गया।  यहाँ से वृषभ तथा गाय की मृण्मय मूतियाँ प्राप्त हुई हैं जिन पर सफेद रंग से चित्रण किया हुआ है। 

Rajasthan ki prachin sabhyata मलाह ( भरतपुर )

मलाह स्थल से  ताँबे की तलवारें एवं हार्पून प्राप्त हुए हैं।

जूनाखेड़ा ( पाली )

जूनाखेड़ा की खोज गैरिक ने की थी। जूनाखेड़ा से उत्खनन में मिट्‌टी के बर्तन पर ‘शालभंजिका’ का अंकन मिला है।

कुराड़ा ( नागौर )

यह ताम्रयुगीन सभ्यता स्थल है। यहाँ से ताम्र उपकरणों के अतिरिक्त अर्घ्यपात्र प्राप्त हुआ है।

बयाना

बयाना, भरतपुर में स्थित है। बयाना का प्राचीन नाम श्रीपंथ है। यहाँ से गुप्तकालीन सिक्के एवं नील की खेती के साक्ष्य मिले हैं।

सोंथी ( बीकानेर )

यह कालीबंगा प्रथम के नाम से प्रसिद्ध है। खोज अमलानंद घोष द्वारा वर्ष 1953 मे की गई। हड़प्पाकालीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं।

 नैनवा ( बूँदी )

उत्खनन कार्य :  श्रीकृष्ण देव ।2000 वर्ष पुरानी महिषासुरमर्दिनी की मृण्मूर्ति प्राप्त हुई है।

किराड़ोत ( जयपुर )

किराड़ोत ( जयपुर )सभ्यता स्थल से ताम्रयुगीन 56 चूड़ियाँ प्राप्त हुई हैं। इसमें 28 चूड़ियों के 2 सेट प्राप्त हुए हैं।

डडीकर ( अलवर )

इस स्थल से पाँच से सात हजार वर्ष पुराने शैलचित्र प्राप्त हुए हैं।

कोटड़ा ( झालावाड़ )

उत्खनन : वर्ष 2003 में दीपक शोध संस्थान| कोटड़ा ( झालावाड़ ) से 7वीं से 12वीं शताब्दी के मध्य के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

गरड़दा (बूँदी)

छाजा नदी के किनारे स्थित इस स्थान से पहली बर्ड राइडर रॉक पेंटिंग प्राप्त हुई है।

 कणसवा ( कोटा )

कणसवा ( कोटा ) से मौर्य शासक धवल का 738 ई. से संबंधित लेख मिला है।

गुरारा ( सीकर )

गुरारा ( सीकर ) चाँदी के 2744 पंचमार्क सिक्के

बांका ( भीलवाड़ा )

राजस्थान की प्रथम अलंकृत गुफा

Rajasthan ki prachin sabhyata jile nadiya pdf

सभ्यताजिलानदी
कालीबंगाहनुमानगढ़सरस्वती (घग्घर)
गिलूण्डराजसमन्दबनास
गणेश्वरसीकरकांतली
बालाथलउदयपुरबेड़च
आहड़उदयपुरआयड़ (बेड़च)
ओझियानाभीलवाड़ाखारी
बागोरभीलवाड़ाकोठारी
बैराठजयपुरबाणगंगा
कोकानीकोटापरवन
नोहभरतपुररूपारेल
रंगमहलहनुमानगढ़सरस्वती (घग्घर)
जोधपुराजयपुरसाबी
तिलवाड़ाबाड़मेरलूनी
सुनारीझुंझुनूँकांतली
नगरीचित्तौड़गढ़बेड़च
गरदड़ाबूँदीछाजा
रैढ़टोंकढील
साबणियाबीकानेर
कुराड़ानागौर
नन्दलालपुराजयपुर
पिण्ड-पांडलियाचित्तौड़
धौली मगराउदयपुर
कुण्डा व ओलाजैसलमेर (मध्य पाषाण कालीन)
चक-84श्रीगंगानगर
जहाजपुरभीलवाड़ा (महाभारत कालीन)
दरभरतपुर (पाषाणकालीन)
पीलीबंगाहनुमानगढ़
जायलनागौर (पुरा पाषाण कालीन)
मरमी गाँवचित्तौड़गढ़
आलनीयाकोटा
चन्द्रावतीसिरोही
खुरड़ीपरबतसर (नागौर)
लाछूराभीलवाड़ा
बरोर श्रीगंगानगर
डाडाथोराबीकानेर
Rajasthan ki prachin sabhyata | राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ

fffराजस्थान की प्राचीन सभ्यताएं के प्रश्न | rajasthan ki prachin sabhyata question

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